Home > Work > गोदान [Godaan]
61 " शराब अगर लोगों को पागल कर देती है, तो इसलिए उसे क्या पानी से अच्छा समझा जाय, जो प्यास बुझाता है, जिलाता है, और शांत करता है? "
― Munshi Premchand , गोदान [Godaan]
62 " तुम बीमार पड़ोगे तो तुम्हारी सेवा करेगी? तो ऐसी वही औरत कर सकती है, जिसने तुम्हारे साथ जवानी का सुख उठाया हो। "
63 " असामी जितने मन से असामी की बात सुनता है, कारकुन की नहीं सुनता। "
64 " ज़बरदस्ती चिड़िया तक तो पिंजड़े में रहती नहीं, आदमी क्या रहेगा। "
65 " तुम्हारी हँसी मैं वरदाश्त कर सकूँगा। नहीं सह सकता उनकी हँसी, जो अपने बराबर के हैं, "
66 " संपत्ति और सहृदयता में वैर है। "
67 " आसक्ति में आदमी अपने बस में नहीं रहता। "
68 " ग़रीबों में अगर ईर्ष्या या वैर है तो स्वार्थ के लिए या पेट के लिए। "
69 " बड़े आदमियों की ईर्ष्या और वैर केवल आनंद के लिए है। "
70 " जीवन में होरी ने बड़ी-बड़ी चोट सही थी, मगर यह चोट सबसे गहरी थी। आज उसके ऐसे दिन आ गये हैं कि उससे लड़की बेचने की बात कही जाती है और उसमें इनकार करने का साहस नहीं है। ग्लानि से उसका सिर झुक गया। "
71 " समाज के नाते आदमी का अगर कुछ धरम है, तो मनुष्य के नाते भी तो उसका कुछ धरम है। समाज-धरम पालने से समाज आदर करता है; मगर मनुष्य-धरम पालने से तो ईश्वर प्रसन्न होता है। "
72 " दु:ख का भार तो वह अकेली उठा सकती थी। सुख का भार तो अकेले नहीं उठता। "
73 " प्रेम जब आत्म-समर्पण का रूप लेता है, तभी ब्याह है, उसके पहले अय्याशी है। "
74 " जिसे असाध्य रोग ने ग्रस लिया हो, वह खाद्य-अखाद्य की परवाह कब करता है? "
75 " कैसे इस बूढ़े का हियाव पड़ा? "
76 " बेशक, उसमें समाई होती, तो रूपा का ब्याह किसी जवान लड़के से और अच्छे कुल में करता, "
77 " लोग हँसेंगे; लेकिन जो लोग ख़ाली हँसते हैं, और कोई मदद नहीं करते, उनकी हँसी की वह क्यों परवा करे। "
78 " हम भी तो आदमी हैं। तुम्हारी मजूरी करने से बैल नहीं हो गये। ज़रा मूड़ पर एक गट्ठा लादकर लाओ "
79 " वैवाहिक जीवन के प्रभात में लालसा अपनी गुलाबी मादकता के साथ उदय होती है और हृदय के सारे आकाश को अपने माधुर्य की सुनहरी किरणों से रंजित कर देती है। फिर मध्याहन का प्रखर ताप आता है, क्षण-क्षण पर बगूले उठते हैं, और पृथ्वी काँपने लगती है। लालसा का सुनहरा आवरण हट जाता है और वास्तविकता अपने नग्न रूप में सामने आ खड़ी है। उसके बाद विश्राममय सन्ध्या आती है, शीतल और शान्त, जब हम थके हुए पथिकों की भाँति दिन-भर की यात्रा का वृत्तान्त कहते और सुनते हैं तटस्थ भाव से, मानो हम किसी ऊँचे शिखर पर जा बैठे हैं जहाँ नीचे का जनरूरव हम तक नहीं पहुँचता। "
80 " आत्मवाद तथा अनात्मवाद की ख़ूब छान-बीन कर लेने पर वह इसी तत्व पर पहुँच जाते थे कि प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के बीच में जो सेवा-मार्ग है, चाहे उसे कर्मयोग ही कहो, वही जीवन को सार्थक कर सकता है, वही जीवन को ऊँचा और पवित्र बना सकता है। किसी सर्वज्ञ ईश्वर में उनका विश्वास न था। यद्यपि वह अपनी नास्तिकता को प्रकट न करते थे, इसलिए कि इस विषय में निश्चित रूप से कोई मत स्थिर करना वह अपने लिए असंभव समझते थे; "